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इतिहास

इन्दौर

इंदौर संभाग भारत के मध्य प्रदेश राज्य की एक प्रशासनिक भौगोलिक इकाई है। इंदौर संभाग का प्रशासनिक मुख्यालय है। संभाग में इंदौर, बड़वानी, बुरहानपुर, धार, झाबुआ, खंडवा, खरगोन और अलीराजपुर जिले शामिल हैं।

इंदौर के इतिहास से पता चलता है कि शहर के संस्थापकों के पूर्वज मालवा के वंशानुगत जमींदार और स्वदेशी भूस्वामी थे। इन जमींदारों के परिवारों ने शानदार जीवन व्यतीत किया। उन्होंने होल्कर के आगमन के बाद भी एक हाथी, निशान, डंका और गाडी सहित रॉयल्टी की अपनी संपत्ति को बनाए रखा। उन्होंने दशहरा (शमी पूजन) की पहली पूजा करने का अधिकार भी बरकरार रखा। मुगल शासन के दौरान, परिवारों को सम्राट औरंगज़ेब, आलमगीर और फ़ारुक्शायार ने अपने जागीर के अधिकारों की पुष्टि करते हुए, सनद दी।

मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र पर स्थित इंदौर, राज्य के सबसे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्रों में से एक है। इंदौर का समृद्ध कालानुक्रमिक इतिहास गौर करने लायक है। योर के दिनों में भी यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था। लेकिन आज कॉर्पोरेट फर्मों और संस्थानों के प्रवेश के साथ, इसने देश के वाणिज्यिक क्षेत्र में एक बड़ा नाम कमाया है। जैसे ही कहानी आगे बढ़ती है, होलकर कबीले के मल्हारो होल्कर ने 1733 में मालवा की विजय में अपनी लूट के हिस्से के रूप में इंदौर को प्राप्त किया। उनके वंशज, जिन्होंने मराठा संघ के मुख्य भाग का गठन किया, पेशवाओं और सिंधियों के साथ संघर्ष में आए और जारी रखा गोर की लड़ाई। ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ इंदौर के इतिहास में एक तीव्र मोड़ आया।

इंदौर के होलकरों ने 1803 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में भाग लिया था। उनकी महिमा धूल से चकित हो गई थी जब वे अंततः 1817- 1818 में तीसरे एंग्लो मराठा युद्ध में मारे गए थे। होलकर राजवंश को हार का सामना करना पड़ा और एक बड़ा हिस्सा छोड़ना पड़ा। उनके अधीन प्रदेशों का। मामले तब चरम पर आ गए जब अंग्रेजी ने उनके उत्तराधिकार में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। उत्तराधिकारियों में से दो रहस्यमय परिस्थितियों में बच गए। इंदौर का इतिहास भारत की स्वतंत्रता तक दिनों के अनुसार और गहरा होता गया जब 1947 में भारत के प्रभुत्व में राज्य आया।

अलिराजपुर 

जिले का नाम पूर्व रियासत की राजधानी पर रखा गया । यह क्षेत्र पहाड़ी है और अधिकांश निवासी भील हैं। आदिवासी बहुल समुदाय होने के कारण अलीराजपुर क्षेत्र पर 15 वीं शताब्दी में आदिवासी राजाओं का शासन था। 1947 में स्वतंत्रता के बाद, अलीराजपुर क्षेत्र को भारतीय संघ में समाहित कर लिया गया। उसके बाद यह क्षेत्र मध्यभारत प्रशासक का हिस्सा बन गया।

1 नवंबर, 1956 को मध्य प्रदेश के गठन के बाद अलीराजपुर झाबुआ जिले में आया। हालांकि अलीराजपुर के लिए एक अलग जिले की मांग उठाई गई थी, लेकिन झाबुआ एक तरफ पेटलावद और थांदला तहसील के बीच और दूसरी तरफ जोबट और अलीराजपुर के बीच था। इसलिए झाबुआ को जिला मुख्यालय घोषित किया गया। तब से अलीराजपुर डिवीज़न मुख्यालय रहा, जिसमें क्रमशः तीन बड़े खंड विकास कार्यालय अलीराजपुर, सोंडवा और कट्टीवाडा थे। इनमें से सोंडवा और कट्टीवाडा टप्पा तहसील मुख्यालय थे।

वखतगढ़, मथवार ककराना आदि गाँव नर्मदा नदी से जुड़े हुए है। जनप्रतिनिधि, सार्वजनिक और राजनीतिक दल समय-समय पर अलीराजपुर के लिए अलग जिले की मांग कर रहे थे। विधानसभा चुनाव 2003 के दौरान, उमा भारती ने अलीराजपुर को एक अलग जिला बनाने का वादा किया। तब से अलीराजपुर के लिए जिले की मांग जोरदार ढंग से उठाई गई। क्षेत्रीय जनता के दबाव के कारण, संगठनों और मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने 17 मई, 2008 को अलीराजपुर को अलग जिला बना दिया और इस तरह एक नई प्रशासनिक इकाई अलीराजपुर का गठन किया गया

बडवानी

शहर बड़वानी 1948 से पहले बड़वानी राज्य की राजधानी था । यह छोटासा राज्य अपनी चट्टानी इलाकों और कम उत्पादक भूमि के कारण अंग्रेज, मुगलों और मराठों के शासन से बचा रहा था।

शहर बड़वानी पूर्व में बड़ नगर और सिद्ध नगर के नाम सें भी जाना जाता था । जिला बड़वानी जैन तीर्थ यात्रा केंद्र चुलगिरि और बावनगजा के लिए भी मशहूर है।

बड़वानी का एक ऐतिहासिक प्रतीक है जो तीरगोला के नाम सें जाना जाता है। यह खंडवा-बड़ौदा मार्ग पर सागर विलास पैलेस के सामने स्थित है, और राजा रणजीत सिंह के दिवंगत बेटे की याद में बनाया गया था ।

आजादी से पहले बड़वानी शहर ‘निमाड़ के पेरिस’ के रूप में जाना जाता था ।

बुरहानपुर 

मध्‍यकालीन इतिहास:- 1536 इस्‍वी में गुजरात विजय अभियान के पश्‍चात हुमायू बडौदा, भरूच और सूरत होते हुए बुरहानपुर और असीरगढ आये थे । राजा अली खां(1576;1596 ई) जो आदिलशाह के नाम से जाने जाते थे जिन्होंने अकबर की खानदेश अभियान के दौरान (1577 ग्रीष्‍म) अधीनता स्‍वीकारते हुए अपनी शाह की उपाधि का त्‍याग कर दिया इसी घटना से मुगलों की दक्षिण की नीति बदल गई । इसके उपरान्‍त खानदेश को आधारस्‍थल बनाकर यहॉं से दक्षिण के अभियान चलाए जाने लगे । राजा अली खान पे कई ख्‍यात भवन बनाऐ । जैसे : असीरगढ के उपर (1588 ई) जामा मसजिद, बुरहानपुर की जामा मसजिद (1590 ई) असीरगढ में ईदगाह; बुरहानपुर में मकबरे और सराय, जैनाबाद में सराय एवं मसजिद इत्‍यादि

राजा अली खान के उत्‍तराधिकारी बहादुरखान(1596-1600 ई) ने मुगलों से अपनी स्‍वतंत्रता की घोषणा कर दी और अकबर और उसके राजकुमार दानियाल को मान्‍यता नहीं दी । कुपित होकर अकबर ने 1599 में बुरहानपुर की ओर प्रस्थान किया और 8 अप्रेल 1600 ई. में बिना किसी अवरोध के नगर पर कब्‍जा कर लिया । इस दौरान अकबर असीरगढ के चार दिवसीय व्‍यक्तिगत दौरे पर भी गए ।

शाहजहॉं का अभियान:-1617 में जहांगीर ने राजकुमार परविज की जगह पर राजकुमार खुर्रम को दक्‍खन का राज्‍यपाल नामांकित किया गया और उसे शाह की उपाधि दी । खुर्रम के नेतृत्‍व में मुगलसेना व्‍दारा शांतिपूर्ण विजयों से प्रसन्‍न होकर जहॉंगीर ने 12 ऑक्‍टोबर 1617 ई. में उसे शाहजहॉं की उपाधि से सम्‍मानित किया । 1627 में जहांगीर की मृत्‍युपश्‍चात शाहजहॉं मुगल बादशाह बनें । 1 मार्च 1630 को दक्‍खन में असंतोषजनक परिस्थितियों के कारण, मुगलगबादशाह शाहजहॉं बुरहानपुर आए । इस समय वे बीजापुर, गोलकुण्‍डा और अहमदनगर अभियानों के चलते दो वर्षों तक यहॉं रहे । इन अभियानों के दौरान ही शाहजहॉं की प्रिय बेगम मुमताज महल का प्रसवपीड़ा से निधन हो गया । मुमताज महल का शव ताप्‍ती के उस पार जैंनाबाद के एक बगीचे में दफन किया गया था । उसी वर्ष दिसंबर के शुरू में (1631 ई), मुमताज महल के शारिरीक अवशेष आगरा पहुंचाए गए । 1632 में महावत खान को दक्‍खन का वाइसराय बनाकर शाहजहॉं ने बुरहानपुर से आगरा प्रस्‍थान किया ।

आधुनिक इतिहास :-16 वीं शताब्‍दी के मध्‍य से लेकर अठारहवीं शताब्‍दी तक बुरहानपुर सहित निमाड क्षेत्र औरंगजेब, बहादुर शाह, पेशवा, सिंधिया, होलकर, पवार और पिण्‍डारियों से प्रभावित रहा । बाद में 18वीं शताब्‍दी की शुरूआत में निमाड़ क्षेत्र का प्रबंधन ब्रिटिश के अधीन आ गया ।

अंग्रेजो के विरूद्ध देशव्‍यापी 1857 के महान विप्‍लव से बुरहानपुर भी अछुता नहीं रहा । तात्‍या टोपे ने निमाड़ क्षेत्र से बाहर जाने के पूर्व खण्‍डवा, पिपलोद इत्‍यादि जगहों पर पुलिस थानों और शासकीय भवनों को आग के हवाले किया था ।

स्‍वाधीनता आंदोलनों से बुरहानपुर भी प्रभावित रहा ।

धार्

परमारों ने नवीं शताब्‍दी से तेरहवीं शताब्‍दी तक मालवा के समीपवर्ती विशाल क्षेत्रफल पर 400 वर्षों तक राज्‍य किया । वाक्‍यपति मुंज तथा भोजदेव इस राजवंश के प्रसिद्ध शासक थे । मुंज एक महान सेनापति, एक प्रख्‍यात कवि तथा कला एवं साहित्‍य का महान संरक्षक था । उसके दरबार में धनंजय, हलायुध, धनिक, नवसाहसांक चरित के लेखक पद्मगुप्‍त, अमितगति आदि जैसे कवि थे । उसने धार तथा माण्‍डू में मुंज सागर खुदवाया तथा अनेक स्‍थानों पर सुंदर मन्दिर बनवाये ।

परमारों में सबसे अधिक प्रसिद्ध भोजदेव प्राचीन भारत का एक यशस्‍वी राजा था । उसका नाम भारत में न केवल सैनिक रूप में बल्कि एक निर्माता, एक विद्धान तथा एक लेखक के रूप में एक की जुबान पर है । वह व्‍याकरण, खगोलशास्‍त्र, काव्‍यशास्‍त्र, वास्‍तुकलाऔर योग जैसे भिन्‍न-भिन्‍न विषयों पर अनेक पुस्‍तकों का र‍चयिता था । उसने अपनी राजधानी उज्‍जैन से धार स्‍थानांतरित कर दी थी, जहां उसने संस्‍कृत के अध्‍ययनके लिये एक विश्‍वविघालय की स्‍थापना की थी । इसे भोजशाला कहा जाता है, जिसमें सरस्‍वती देवी की प्रतिमा प्रतिष्‍ठापित थी । उसने धार का पुर्ननिर्माण किया तथा भोपाल के पास भोजपुर की स्‍थापना की तथा भोजपुर स्थित भव्‍य मन्दिर सहित अनेक शिव मन्दिरों का निर्माण किया । भोज ने भोजपुर के पास एक बड़े जलाशय का भी निर्माण किया ।

सन् 1305 ई. में धार तथा माण्‍डू पर अधिकार करते ही सम्‍पूर्ण मालवा अलाउद्दीन खिलजीके हाथों में आ गया । धार मुहम्‍मद द्वितीय के शासन काल तक दिल्‍ली के सुल्‍तानों के अधीन रहा । उस समय दिलावर खान घुरी मालवाका सूबेदार था । 1401 ई. में उसने शासन की बागडोर संभाली तथा स्‍वंतत्र मालवा राज्‍य की स्‍थापना की तथा उसने धार को अपनी राजधानी बनाया । उसके पुत्र तथा उत्‍तराधिकारी होशंगशाह ने धार को हटाकर माण्‍डू को अपनी राजधानी बनाया । ई. 1435 में होशंगशाह की मृत्‍यु हो गयी तथा उसे एक शानदार मकबरे में दफनाया गया, जो आज भी माण्‍डू में विघमान है । होशंगशाह की मृत्‍यु के बाद उसका पुत्र गजनी खान उसका उत्‍तराधिकारी बना । उसने आदेश दिया कि उसकी राजधानी माण्‍डू को शादियाबाद (हर्षोल्‍लास कास शहर) कहा जाये त‍थापि उसने बहुत कम राज्‍य किया तथा ई. 1436 में महमूद खिलजी ने उसे जहर देकर मार डाला । महमूद खान गद्दी पर बैठा तथा उसने मालवा में खिलजी सुल्‍तानों की नींव डाली । खिलजी सुल्‍तान ई. 1531 तक मालवा पर राज्‍य करते रहे । बाद में मालवा पर शेरशाह का अधिकार हो गया तथा उसे शुजात खां के प्रभार में रखा गया । शुजात खां का उत्तराधिकारी उसका पुत्र बाज बहादुर हुआ । माण्‍डू तथा उसके आसपास रूपमती और बाज बहादुर के रोमांस की कहानियां गूंजती थीं । जब बाज बहादुर परास्‍त हो गया तथा मुगल सेना द्वारा उसे खदेड़ दिया गया तब उसकी प्रेमिका रूपमती ने अपमानसे बचने के लिये जहर खाकर अपनी जान दे दी । अकबर के प्रशासनिक संगठन में धार, मालबा सूबा के अन्‍तर्गत माण्‍डू सरकार में महाल का मुख्‍य नगर था । अक‍बर दक्षिण पर आक्रमण का संचालन करते समय सात दिन तक धार में रहा । वह कई बार माण्‍डू भी गया । माण्‍डू शहंशाह जहांगीर का भी मनपसंद सैरगाह था, जो ई. 1616 में छ: माह से अधिक यहां रहा । जहांगीर ने माण्‍डू की अच्‍छी जलवायु और सुन्‍दर दृश्‍यों की बहुत प्रशंसा की है । नूरजहां ने माण्‍डू के पास हाथी पर सवार होकर छह गोलियों से चार चीतों का शिकार किया ।

जब ई. 1832 में बाजीराव पेशवा ने मालवा को सिंधिया, होलकर तथा तीन पवार सरदारों में बांट दिया तब धार आनन्‍द राव पवार को दे दिया गया । 1857 की महान क्रान्ति के बाद, तीन वर्षों की संक्षिप्‍त अवधि को छोड़कर 1948 तक इस क्षेत्र पर धार के शासकों का शासन बना रहा ।

झाबुआ

झाबुआ की रियासत ब्रिटिश राज के दौरान भोपलवार एजेंसी के अधीन मध्य भारत में एक प्रमुख रियासत थी। यह उत्तर में कुशालगढ़ राज्य द्वारा राजपुतौआ एजेंसी से , दक्षिण में जोबट राज्य, पूर्व में अली-रायपुर और धार द्वारा, और पश्चिम में बॉम्बे के पाउच महल जिले द्वारा घिरा हुआ था। राज्य मालवा के पहाड़ी क्षेत्र में स्थित है, जिसे राठ के नाम से जाना जाता है, जो मालवा पठार की पश्चिमी सीमा का गठन करता है, और बाद में 1927 में मालवा एजेंसी का हिस्सा बन गया।

1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, झाबुआ के अंतिम शासक ने 15 जून 1948 को भारतीय संघ में प्रवेश किया और झाबुआ नव निर्मित मध्य भारत राज्य का हिस्सा बन गया, जिसे 1956 में मध्य प्रदेश में मिला दिया गया।

खंडवा 

प्राचीन इतिहास : नर्मदा / सहायक नदियों के किनारों में हुए अन्वेषणों से पता चलता है कि जिले के पुरापाषाण काल में भी यहां पर मानव प्रजाति आस्तित्‍वमान थी । कहा जाता है कि खंडवा के उत्तर-पश्चिम में लगभग 70 किमी की दूरी पर नर्मदा नदी के तट पर स्थित द्वीप ओंकार मांधाता को यदु परिवार के एक वंशज हैहय राजा महिषमंत ने जीत लिया था, जिसने महिष्मती नाम दिया था।

बौद्ध धर्म के उदय के दौरान, पूर्वी निमाड़ क्षेत्र को चंद प्रद्योत द्वारा अवंती साम्राज्य में शामिल किया गया था, बाद में मगध के बढ़ते साम्राज्‍य में शिशुनाग द्वारा शामिल कर लिया ।

दूसरी शताब्दी के आरंभ से ई.पू. 15 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, निमाड़ क्षेत्र (पूर्व में खानदेश का एक हिस्सा) कई राजवंशों के शासकों द्वारा शासित रहा था, जिसमें मौर्य, सुंग, प्रारंभिक सातवाहन, कर्दमदास, अभिरस, वाकाटक, शाही गुप्त, कलचुरि, वर्धन, चालुक्य, राष्ट्रकूट, परमार, फारुकी राजवंश आदि प्रमुख थे ।

नजदीकी जिला बुरहानपुर में मुगल-काल के दौरान बहुत सशक्‍त रहा है और ऐसे शक्तिशाली स्थान की उपस्थिति का प्रभाव वर्तमान खण्‍डवा जिले पर भी स्पष्ट दृष्टिगत होता है।

1536 ई0 में, मुगल सम्राट हुमायूँ ने गुजरात पर विजय प्राप्त करने के बाद, बड़ौदा, भड़ुच और सूरत के रास्ते बुरहानपुर और असीरगढ़ (दोनों अब बुरहानपुर जिले में हैं) का दौरा किया था। राजा अली खान (1576-1596 ई।), जिसे आदिल शाह के नाम से भी जाना जाता है, को अकबर की अधीनता स्‍वीकारना पड़ी थी । 1577 ईस्वी की गर्मियों में, जब अकबर ने खानदेश को जीतने के लिए एक अभियान भेजा था, तो राजा अली खान ने एकतरफा लड़ाई से बचने के लिए शाह की अपनी शाही पदवी छोड़ दी और अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इस घटना ने मुगलों की दक्कन नीति में एक युग का सूत्रपात किया, क्योंकि दक्‍खन का द्वार कहलाने वाले असीरगढ़ जो खानदेश का एक किला है, की विजय ही भविष्य में दक्खन की विजय के लिए आवश्‍यक थी । राजा अली खान ने 1588 ईस्वी में असीर के किले के ऊपरी हिस्से में जामा मस्जिद, 1590 ईस्वी में बुरहानपुर में जामा मस्जिद, असिर में ईदगाह, बुरहानपुर में मकबरे और सेराई और जहानाबाद (बुरहानपुर के पास बुरहानपुर) में सेरी और मस्जिद में कई इमारतों का निर्माण कराया।

बहादुर अली (1596-1600 ई0) (राजा अली खान का उत्तराधिकारी) ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की और अकबर और उनके बेटे शहजादा दानियाल का आधिपत्‍य मानने से इनकार कर दिया, जिससे अकबर क्रोधित हो 1599 में बुरहानपुर की ओर मार्च किया और 8 अप्रैल 1600 ई0 को बिना किसी विरोध के शहर पर कब्जा कर लिया। अकबर ने असीरगढ़ का दौरा कर निरीक्षण किया । बुरहानपुर में वे 4 दिनों के लिए रुके था ।

शनवारा गेट, बुरहानपुर

शाहजहां के अभियान: जहाँगीर द्वारा शहजादे परविज़ को पीछे करने के लिए राजकुमार खुर्रम को 1617 ईस्वी में दक्‍खन के गवर्नर के रूप में नामांकित किया गया था और शाह की उपाधि दी गई थी। खुर्रम ने मुगल सेना का कुशल नेतृत्व कर एक शांतिपूर्ण जीत हासिल की, जिससे प्रसन्‍न हो जहाँगीर ने उसे 12 अक्टूबर, 1617 ई0 को शाहजहाँ की उपाधि से सम्मानित किया। 1627 में जहांगीर की मृत्यु के बाद, शाहजहाँ मुगल साम्राज्य के सिंहासन पर आरूढ़ हुए । दक्कन में परेशान करने वाली परिस्थितियों के कारण, वह 1 मार्च 1630 को बुरहानपुर (दक्खन) पहुँचे, जहाँ वे बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुंडा के विरुद्ध अभियान संचालन करते हुए अगले दो वर्षों तक रहे। 7 जून 1631 को, शाहजहाँ ने बुरहानपुर में अपनी प्रिय पत्नी मुमताज़ महल को खो दिया और उसके शव को ताप्ती नदी के पार ज़ैनाबाद के बगीचे में दफनाया गया था। उसी वर्ष (1631 ई।) के दिसंबर की शुरुआत में, उसके शरीर के अवशेष आगरा भेजे गए थे। बाद में 6 मार्च 1632 को, शाहजहाँ ने दक्कन के वाइसराय के रूप में महाबत खान को नियुक्त करने के बाद, वापस प्रस्‍थान किया ।

आधुनिक इतिहास: 16 वीं शताब्दी के मध्य से 18 वीं शताब्दी के प्रारंभ तक, निमाड़ क्षेत्र (पूर्वी निमाड़ सहित), औरंगज़ेब, बहादुर शाह (मुग़लों), पेशवा, सिंधिया, होलकर और पवार (मराठों), पिंडारियों आदि के शासन / प्रभाव के अधीन था। 18 वीं शताब्दी के मध्य भाग से, निमाड़ क्षेत्र का प्रबंधन अंग्रेजों के अधीन आ गया।

कलेक्‍टर कार्यालय भवन, खण्‍डवा

ब्रिटिश शासन के विरूद्ध देशव्यापी 1857 के महान विद्रोह से पूर्वी निमाड़ जिला अप्रभावित नहीं रहा । 1857 के की क्रांति के समय तात्या टोपे निमाड़ क्षेत्र और क्षेत्र छोड़नें के पहले खण्‍डवा और पिपलोद के पुलिस थानो, शासकीय भवनों और अन्‍य शासकीय संपत्ति को आग के हवाले किया । बाद में वे खरगोन के रास्ते मध्य भारत में फिर से भाग गए।

18 वीं शताब्दी के अंत से 15 अगस्त 1947 तक मातृभूमि भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए चले स्वतंत्रता के आंदोलनों यथा- असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन आदि से पूर्व निमाड़ जिला बहुत प्रभावित रहा, । इस अवधि में भारत की महानविभुतियॉं जैसे आर्य समाज के स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, महात्मा गांधीजी, लोकमान्य तिलक आदि ने निमाड़ की धरती पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी ।

जिले के युवा राष्ट्रवादियों, जैसे हरिदास चटर्जी, माखनलाल चतुर्वेदी, ठाकुर लक्ष्मण सिंह (बुरहानपुर जिले के), अब्दुल क़ादिर सिद्दीकी ने 1917 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिया था। 1918 में लोकमान्‍य तिलकजी ने अपने चक्रवाती दौरे के दौरान मध्य प्रांत के इस जिले का दौरा किया। जिला असहयोग आंदोलन में अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहा । 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जिले के कई लोगों ने भाग लिया। साप्ताहिक रूप से कर्मवीर को प्रकाशित किया गया था और इसके संपादक दादा माखनलाल चतुर्वेदी को दो साल की सजा सुनाई गई थी। स्वराज्य के संपादक एस0एम0आगरकर को भी गिरफ्तार किया गया और जेल में डाल दिया गया। 1931 में नव जवान सभा खंडवा में स्थापित की गई थी। छात्रों ने भी इस आंदोलन में भाग लिया था। उन्होंने हाई स्कूल भवन से यूनियन जैक को हटा दिया और तिरंगा फहराया, इस सिलसिले में रायचंद भाई नागड़ा को जुर्माना और कारावास हुआ।

भारत छोड़ो आंदोलन में जिले का भी योगदान है। अगस्त, 1942 से कुछ समय पहले हरसूद में जिला स्‍तरीय राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें आसन्न संघर्ष के लिए लोगों को सचेत किया गया था। रॉबर्टसन हाई स्कूल, बुरहानपुर के छात्रों ने 15 अगस्त को स्कूल भवन पर तिरंगा फहराया । लेकिन इसे पुलिस ने हटा दिया। छात्रों ने पुलिस के इस कृत्य के खिलाफ जब तक तिरंगा फहराने और राष्ट्रीय नेताओं की तस्वीरें चिपकाने की मांग पूरी नहीं हुई, जुलूस निकाले ।

खरगौन

इतिहासकारों के मतानुसार नर्मदा घाटी की सभ्यता अत्यंत प्राचीन है। रामायणकाल, महाभारतकाल, सातवाहन, कनिष्क, अभिरोहर्ष, चालुक्य, भोज, होलकर, सिंधिया, मुगल तथा ब्रिटिश आदि से यह क्षेत्र जुड़ा हुआ है। विभिन्न कालों में यहां जैन, यदुवंशी, सिद्धपंथी, नागपंथी आदि का प्रभाव रहा है। प्राचीन स्थापत्य कला के अवशेष इस क्षेत्र के ऐतिहासिक गाथाओं को व्यक्त करने में आज भी सक्षम हैं। इस क्षेत्र में प्राप्त पाषाणकालीन शस्त्रों से भी यह सिद्ध होता है। ऐसा अनुमान है कि आर्य एवं अनार्य सभ्यताओं की मिश्रित भूमि होने के कारण यह क्षेत्र “निमार्य” नाम से जाना जाने लगा जो कि कालांतर में अपभृंष हो कर “निमार” एवं फिर “निमाड़” में परिवर्तित हो गया। (निमा = आधा) । एक अन्य मतानुसार यह नाम नीम के वृक्षों के कारण पड़ा।

भारत के उत्तर व दक्षिण प्रदेशों को जोड़ने वाले प्राकृतिक मार्ग पर बसा यह क्षेत्र सदैव ही महत्वपूर्ण रहा है। इतिहास के विभिन्न कालखण्डों मे यह क्षेत्र – महेश्वर के हैहय, मालवा के परमार असीरगढ़ के अहीर, माण्डू के मुस्लिम शासक, मुगल तथा पेशवा व अन्य मराठा सरदारों – होल्कर, शिंदे, पवार – के साम्राज्य का हिस्सा रहा है। 1 नवंबर 1956 को मध्यप्रदेश राज्य के गठन के साथ ही यह जिला “पश्चिम निमाड़” के रूप में अस्तित्व में आ गया था। कालांतर में प्रशासनिक आवश्याकताओं के कारण दिनांक 25 मई 1998 को “पश्चिम निमाड़” को दो जिलों – खरगौन एवं बड़वानी में विभाजित किया गया।